तर्पण विधि 2080/06/05

 तर्पण विधि

 
  
अथ श्राद्धविधिः

तत्रादौ तर्पणम्

तर्पणसंकल्प:- कृतनित्यक्रियः, आचम्य कुशयवतिलजलान्यादाय, हरिः तत्सत् , विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य सकलजगत्सृष्टिकारिणो ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे युगे सत्यत्रेताद्वापरान्ते कलियुगे कलियुगस्य प्रथमचरणे भारतवर्षे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतेऽमुकनाम - पुण्यक्षेत्रे षष्टिसंवत्सराणां मध्ये अमुकनामसंवत्सरे अमुकायने अमुकऋतौ अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे अमुकराशिस्थिते श्रीसूर्ये अमुकराशिस्थिते चन्द्रमसि अमुकराशिस्थिते देवगुरौ अन्येषु ग्रहेषु यथायथाराशिस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगणविशेषेण विशिष्टाम् अद्येह विशेष
एकोद्दिष्टमा- चारोटा पवित्र, ब्राह्रोटा मोटक, दुइटा सिधा, : ओटा दुना ।। पार्वणमा - सातोटा पवित्र, पाँचवटा सिधा, तर्पण गरिएका समस्त पितृहरूको दोब्बर भन्दा सत्रौटा बेसी मोटक, पच्चीसओटा दुना, कर्मपात्र बनाउन दुइटा तामाका थाली, कुशे ब्राह्मण चार (विश्वेदेव दुई पितृ दुई) एकपार्वणमा विशेष एकपार्वणमा तीनोटा पिण्ड चाहिन्छ। यौटा विश्वेदेव यौटा पितृब्राह्मण गरी जम्मा दुइटा कुशे ब्राह्मण थापिन्छन् दीयो, दुना, कुश, मोटक, पवित्र आदि एकोद्दिष्टमा जति नै चाहिन्छ दुइटा कर्मपात्र, तीनोटा सिधा, तीनोटा पिण्ड चाहिन्छ बाँकी एकोद्दिष्टमा जस्तै हो
उहिले विश्वेदेव ब्राह्मण (कुशबाहुन) पितृपक्षका तीन मातृका तीन गरी जम्मा ओटा चाहिन्थ्यो, अनि ब्राह्मण पनि त्यसै छोटे चाहिन्थ्यो जम्मा बाह्र ओटा कुरोमाहुन धापिन्थ्यो साढ़े तीन हात अग्लो मान्छेको मूसा का भूतीका प्रत्येक सिधा सोही अनुसारको परिकार भरिएको भूस्वामीलाई सहित तेह्र ओटा सिधा चाहियो
तीर्थश्राद्धमा कुश, कर्मपात्र पितृसंख्याको दोब्बरभन्दा चार/पाँच ज्यादा मोटक, - कुशका टुक्रा, पिण्ड दिने वेदी बनाउन बालु, पिण्डका लागि जौको पीठो, मह-तिल जल-जौ - जनै तीर्थश्राद्धमा बत्ती बाल्नुपर्दैन, ब्राह्मण थाप्नुपर्दैन, सिधां चाहित्र, अवनेजनको (मोटक) को माथि क्रमैले पिण्ड दिएर, फेरि पिण्डमाथि क्रमैले पिण्डप्रत्यवनेजन दिइसके पछि, तिनै प्रत्यवनेजनमाथि क्रमैले तर्पण दिनुपर्छ पितृहरूलाई ।। श्राद्धभूमि-शोधनं पात्रासादनं वरिपरिको भूमिसहित श्राद्धभूमिलाई बढारकुडार पारेर सफा पारी, कच्ची भूइँ भए गाईको गोबरले लिपेर, पक्की भूइँ भए पवित्र पानीले पखालेर ओभाउन दिनू श्राद्धकर्ता श्राद्धभूमिको उत्तरपट्टि दक्षिण मख गरेर कशासनमा बस्न जनै फेर्नू अनि आफ्नू अगाडि पिण्ड दिने वेदी केके चाहिन्छ बाजे ? :; कुचो, कच्ची भुइँ भए लिप्नका लागि गाईको गोबर, पक्की भुई भए धुनका लागि चोखो पानी अनि कुश निकै; एकोद्दिष्टमा भए दुइटा सिधा छः, ओटा दुना; पार्वण भए पाँचोटा सिधा, बाईस ओटा दुना; एकपार्वण भए तीनोटा सिधा, दुइटा ब्राह्मण अनि दुना, टाकन - दुकनको लागि धूप-कुश, कातेका बत्ती -पान-जनै, वस्त्र - घिउ मह - जल- वेदी बनाउन शुद्ध माटो वा बालुवा, पिण्ड पकाउन गाईको काँचो दूध, पिण्डमा चढाउन गाईको काँचो दूध, पिण्ड पकाउन स्टील वा फलाम बाहेकको भाँडो, नैवेद्यहरू, कपूर, भेटी, दक्षिणाकुशासन- कम्बलासनकर्मपात्रो बनाउन तामाको थाली, तर्पण दिन तामाको कुनै थाली, जौ, तिल, केशरीको पहेंलो चन्दन, चन्दन मुछिएको पहेंला अक्षता, सेता फूल, दीयो राख्ने-ब्राह्मण थाप्ने चार्कुनेमा चामल, अर्घातो यति ठीक पार्नुहोला सके ब्राह्मण भोजनका लागि खीर वा मिठाई, नसके सिधै दिए पनि हुन्छ ।।
(पार्वणबारे परिचय)

तर्पण-विधि:

(देवर्षिमनुप्यपितृतर्पणविधि:)


प्रातःकाल
संध्योपासना करने के पश्चात् बायें और दायें हाथ की अनामिका अङ्गुलि मेंपवित्रे स्थो वैष्णव्यौ०इस मन्त्र को पढते हुए पवित्री (पैंती) धारण करें फिर हाथ में त्रिकुश, यव, अक्षत और जल लेकर निम्नाङ्कित रूप से संकल्प पढें---

विष्णवे नम: ३। हरि: तत्सदद्यैतस्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टार्विशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे अमुकसंवत्सरे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे अमुकगोत्रोत्पन्न: अमुकशर्मा (वर्मा, गुप्त:) अहं श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं देवर्पिमनुष्यपितृतर्पणं करिष्ये

तदनन्तर एक ताँवे अथवा चाँदी के पात्र में श्वेत चन्दन, चावल, सुगन्धित पुष्प और तुलसीदल रखें, फिर उस पात्र के ऊपर एक हाथ या प्रादेशमात्र लम्बे तीन कुश रखें, जिनका अग्रभाग पूर्व की ओर रहे इसके बाद उस पात्र में तर्पण के लिये जल भर दें फिर उसमें रखे हुए तीनों कुशों को तुलसी सहित सम्पुटाकार दायें हाथ में लेकर बायें हाथ से उसे ढँक लें और निम्नाङ्कित मन्त्र पढते हुए देवताओं का आवाहन करें

विश्वेदेवास ऽआगत श्रृणुता ऽइम, हवम्

एदं वर्हिनिषीदत (शु० यजु० ७।३४)

हे विश्वेदेवगण ! आप लोग यहाँ पदार्पण करें, हमारे प्रेमपूर्वक किये हुए इस आवाहन को सुनें और इस कुश के आसन पर विराजमान हों

विश्वेदेवा: श्रृणुतेम, हवं मे ये ऽअन्तरिक्षे ऽउप द्यवि ष्ठ

येऽअग्निजिह्वाऽउत वा यजत्राऽआसद्यास्मिन्बर्हिषि मादयद्ध्वम् (शु० यजु० ३३।५३)

हे विश्वेदेवगण ! आपलोगोंमें से जो अन्तरिक्ष में हों, जो द्य्लोक (स्वर्ग) के समीप हों तथा अग्नि के समान जिह्वावाले एवं यजन करने योग्य हों, वे सब हमारे इस आवाहन को सुनें और इस कुशासन पर बैठकर तृप्त हों

आगच्छन्तु महाभागा विश्वेदेवा महाबला:

ये तर्पणेऽत्र विहिता: सावधाना भवन्तु ते

जिनका इस तर्पण में वेदविहित अधिकार है, वे महान् बलवाले महाभाग विश्वेदेवगण यहाँ आवें और सावधान हो जायँ

इस प्रकार आवाहन कर कुश का आसन दें और उन पूर्वाग्र कुशों द्वारा दायें हाथ की समस्त अङ्गुलियों के अग्रभाग अर्थात् देवतीर्थ से ब्रह्मादि देवताओं के लिये पूर्वोक्त पात्र में से एक-एक अञ्जलि चावल-मिश्रित जल लेकर दूसरे पात्र में गिरावें और निम्नाङ्कित रूप से उन-उन देवताओं के नाममन्त्र पढते रहें---

देवतर्पण

ब्रह्मा तृप्यताम् विष्णुस्तृप्यताम् रुद्रस्तृप्यताम् प्रजापतिस्तृप्यताम् देवास्तृप्यन्ताम् छन्दांसि तृप्यन्ताम् वेदास्तृप्यन्ताम् ऋषयस्तृप्यन्ताम् पुराणाचार्यास्तृप्यन्ताम् गन्धर्वास्तृप्यन्ताम् इतराचार्यास्तृप्यन्ताम् संवत्सर: सावयवस्तृप्यताम् देव्यस्तृप्यन्ताम् अप्सरसस्तृप्यन्ताम् देवानुगास्तृप्यन्ताम् नागास्तृप्यन्ताम् सागरास्तृप्यन्ताम् पर्वतास्तृप्यन्ताम् सरितस्तृप्यन्ताम् मनुष्यास्तृप्यन्ताम् यक्षास्तृप्यन्ताम् रक्षांसि तृप्यन्ताम् पिशाचास्तृप्यन्ताम् सुपर्णास्तृप्यन्ताम् भूतानि तृप्यन्ताम् पशवस्तृप्यन्ताम् वनस्पतयस्तृप्यन्ताम् ओषधयस्तृप्यन्ताम् भूतग्रामश्चतुर्विधस्तृप्यताम्

ऋषितर्पण

इसी प्रकार निम्नाङ्कित मन्त्रवाक्यों से मरीचि आदि ऋषियों को भी एव्क-एक अञ्जलि जल दें---

मरीचिस्तृप्यताम् अत्रिस्तृप्यताम् अङ्गिरास्तृप्यताम् पुलस्त्यस्तृप्यताम् पुलहस्तृप्यताम् क्रतुस्तृप्यताम् वसिष्ठस्तृप्यताम् प्रचेतास्तृप्यताम् भृगुस्तृप्यताम् नारदस्तृप्यताम्

दिव्यमनुष्यतर्पण

इसके बाद जनेऊ को माला की भाँति गले में धारण कर अर्थात् निवीती हो पूर्वोक्त कुशों को दायें हाथ की कनिष्ठिका के मूल-भाग में उत्तराग्र रखकर स्वयं उत्तराभिमुख हो निम्नाङ्कित मन्त्र-वचतों को दो-दो बार पढते हुए दिव्य मनुष्यों के लिये प्रत्येक को दो-दो अञ्जलि यवसहित जल प्राजापत्यतीर्थ कनिष्ठिका के मूला-भाग) से अर्पण करें---

सनकस्तृप्यताम् ॥२॥ सनन्दनस्तृप्यताम् ॥२॥ सनातनस्तृप्यताम् ॥२॥ कपिलस्तृप्यताम् ॥२॥

आसुरिस्तृप्यताम् ॥२॥ वोहुस्तृप्यताम् ॥२॥ पञ्चशिखस्तृप्यताम् ॥२॥

दिव्यपितृतर्पण

तत्पश्चात उन कुशों को द्विगुण भुग्न करके उनका मूल और अग्रभाग दक्षिण की ओर किये हुए ही उन्हें अंगूठे और तर्जनी के बीच में रखे और स्वयं दक्षिणाभिमुख हो बायें घुटने को पृथ्वी पर रखकर अपलव्यभाव से जनेऊ को दायें कंधेपर रखकर पूर्वोक्त पात्रस्थ जल में काला तिल मिलाकर पितृतीर्थ से अंगृठा और तर्जनी के मध्यभाग से दिव्य पितरों के लिये निम्नाङ्किन मन्त्र-वाक्यों को पढते हुए तीन-तीन अञ्जलि जल दें---

कव्यवाडनलस्तृप्यतकव्यवाडनलस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: ॥३॥

सोमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: ॥३॥

यमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: ॥३॥

अर्यमा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: ॥३॥

अग्निष्वात्ता: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्य़: स्वधा नम: ॥३॥

सोमपा: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्य़: स्वधा नम: ॥३॥

बर्हिषद: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्य़: स्वधा नम: ॥३॥

यमतर्पण 

इसी प्रकार निम्नलिखित मन्त्र-वाक्यों को पढते हुए चौदह यमों के लिये भी पितृतीर्थ से ही तीन-तीन अञ्जलि तिल सहित जल दें---

यमाय नम: ॥३॥

धर्मराजाय नम: ॥३॥

मृत्यवे नम: ॥३॥

अन्तकाय नम: ॥३॥

वैवस्वताय नमः ॥३॥

कालाय नम: ॥३॥

सर्वभूतक्षयाय नम: ॥३॥

औदुम्बराय नम: ॥३॥

दध्नाय नम: ॥३॥

नीलाय नम: ॥३॥

परमेष्ठिने नम: ॥३॥

वृकोदराय नम: ॥३॥

चित्राय नम: ॥३॥

चित्रगुप्ताय नम: ॥३॥

मनुष्यपितृतर्पण 

इसके पश्चात् निम्नाङ्कित मन्त्र से पितरों का आवाहन करें---

उशन्तस्त्वा निधीमह्युशन्त: समिधीमहि

उशन्नुशत ऽआवह पितृन्हाविषे ऽअत्तवे (शु० यजु० १६।७०)

हे अग्ने ! तुम्हारे यजन की कामना करते हुए हम तुम्हें स्थापित करते हैं यजन की ही इच्छा रखते हुए तुम्हें प्रज्वलित करते हैं हविष्य की इच्छा रखते हुए तुम भी तृप्ति की कामनावाले हमारे पितरों को हविष्य भोजन करने के लिये बुलाओ

आयन्तु : पितर: सोम्यासोऽग्निष्वात्ता: पथिभिर्देवयानै:

अस्मिन्यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधिव्रुवन्तु तेऽवन्तस्मान् (शु० यजु० १६।५८)

हमारे सोमपान करने योग्य अग्निष्वात्त पितृगण देवताओं के साथ गमन करने योग्य मार्गों से यहाँ आवें और इस यज्ञ में स्वाधा से तृप्त होकर हमें मानसिक उपदेश दें तथा वे हमारी रक्षा करें

तदनन्तर अपने पितृगणों का नाम-गोत्र आदि उच्चारण करते हुए प्रत्येक के लिये पूर्वोक्त विधि से ही तीन-तीन अञ्जलि तिल-सहित जल इस प्रकार दें---

अस्मत्पिता (बाप) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यतांम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: ॥३॥

अस्मत्पितामह: (दादा) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो रुद्ररूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: ॥३॥

अस्मत्प्रपितामह: (परदादा) अमुकशर्मा अमुकसगोत्र आदित्यरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: ॥३॥

अस्मन्माता अमुकी देवा दा अमुकसगोत्रा वसुरूषा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: ॥३॥

अस्मत्पितामही (दादी) अमुकी देवी दा अमुकसगोत्रा रुद्ररूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: ॥३॥

अस्मत्प्रपितामही परदादी अमुकी देवी दा अमुकसगोत्रा आदित्यरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जल तस्यै स्वधा नम: ॥३॥

अस्मत्सापत्नमाता सौतेली मा अमुकी देवी दा अमुकसगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: ॥२॥

इसके बाद निम्नाङ्कित नौ मन्त्रों को पढते हुए पितृतीर्थ से जल गिराता रहे---

उदीरतामवर ऽउत्परास ऽउन्मध्यमा: पितर: सोम्यास:

असुं ऽईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु ( शु० य० १६।४६)

इस लोक में स्थित, परलोक में स्थित और मध्यलोक में स्थित सोमभागी पितृगण क्रम से ऊर्ध्वलोकों को प्राप्त हों जो वायुरूपको प्राप्त हो चुके हैं, वे शत्रुहीन सत्यवेत्ता पितर आवाहन करनेपर यहाँ उपस्थित हो हमलोगों की रक्षा करें

अङ्गिरसो : पितरो नवग्वा ऽअथर्वाणो भृगव: सोम्यास:

तेषां वय, सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम (शु० य० १६।७०)

 

अङ्गिरा के कुल में, अथर्व मुनि के वंश में तथा भृगुकुल में उत्पन्न हुए नवीन गतिवाले एवं सोमपान करने योग्य जो हमारे पितर इस समय पितृलोक को प्राप्त हैं, उन यज्ञ में पूजनीय पितरों की सुन्दर बुद्धि में तथा उनके कल्याणकारी मन में हम स्थित रहें अर्थात् उनकी मन-बुद्धि में हमारे कल्याण की भावना बनी रहे

आयन्तु : पितर: सोम्यासोऽग्निष्वात्ता: पथिभिर्देवयानै:

अस्मिन्यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधिब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान् (शु० य० १६।५८)

इस मन्त्र का अर्थ पहले (पृष्ठ ३२में) चुका है

ऊर्ज्जं वहन्तीरमृतं घृतं पय: कीलालं परिस्त्रुतम्

स्वधास्थ तर्पयत मे पितृन् (शु० य०।३४)

हे जल ! तुम स्वादिष्ट अन्न के सारभूत रस, रोग-मृत्यु को दूर करनेवाले घी और सब प्रकार का कष्ट मिटानेवाले दुग्ध का वहन करते हो तथा सब ओर प्रवाहित होते हो, अतएव तुम पितरों के लिये हविःस्वरूप हो; इसलिये मेरे पितरों को तृप्त करो

पितृभ्य: स्वधायिभ्य: स्वधा नम: पितामहेभ्य: स्वधायिभ्य

स्वधा नम: प्रपितामहेभ्य: स्वधायिभ्यं: स्वधा नम:

अक्षन्पितरोऽमीमदन्त पितरोऽतीतृएन्त पितर: पितर: शुन्धध्वम् (शु० य० ) 

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